About the Book
ये मात्र जिजीविषा की कवितायेँ नहीं हैं, न अकेली किसी चाह की। अपने अंतस को विभिन्न बोलिये यों में व्यक्त करने की ललक के साथ ये कवितायें इतना कुछ कहना चाहतीं हैं कि उम्र का फलक छोटा लगता है। ये न केवल देश देशांतर की उड़ान में होतीं हैं, अपनी स्मृतियों में ये छुटपन, यौवन और वर्तमान में आवाजाही के बीच कभी किसी फुनगी पर तो कभी आकाश में ही स्थिर हो जाना चाहतीं हैं। माता पिता और बच्चों के स्वरुप में स्वयं को देखतीं ये कवितायें मर्म स्पर्श करतीं हैं, कहीं अपने से विनोद तो कहीं श्रमिक परिवार और बूढ़ी कुम्हारन से भी सगापन स्थापित कर उनके आनंद और टीसों में शामिल हो जातीं हैं। प्रजातंत्र के भेस में राजसी रौब और राज की ओट में अराजकता को भी वे गहरे तंज के साथ उघड़ा करतीं हैं।
बातूनी औरत की बात करते ये कवितायें पुरुष के स्त्रीत्व की कोमलता ले कर अपनी शरारतों के साथ किसी गर्भवती स्त्री के गांभीर्य और तेज से दीप्त हो उठतीं हैं। गालियों की झिड़क में लाड़ देखतीं हैं तो एक तिलिस्मी नींद में उलझी प्रजा की बाजार के सौदागर के जाल में बेखबरी पर भी उनकी नज़र है । ये कवितायें अपनी रचना में जीते हुए जीवन से दूर जाकर भी देख आतीं हैं। फिर-फिर लौट कर जीने में रम जातीं ये कवितायें न केवल नया उल्लास जगातीं हैं, बल्कि जीवन के कठिन राग और दुर्गम ताल को भरपूर रियाज़ की परिपक्वता के साथ सहज और सुगम स्वरूप में प्रस्तुत करते हुए पाठक को अपनी लय में बांधे चलतीं हैं।