About the Book
कहने को एक आईना टूट बिखर गया
लेकिन मिरे वजूद को किरचों से भर गया
मैं जाने किस ख़याल के तनहा सफ़र में था
अपने आहूत करीब से होकर गुज़र गया
इक आशना से दर्द ने चौंका दिया मुझे
मैं तो समझ रहा था मिरा ज़ख्म भर गया
शायद कि इन्तजार इसी पल का था उसे
कश्ती के डूबते ही वो दरिया उतर गया
मुद्दत से उसकी छाँव में बैठा नहीं कोई
इस सायादार पेड़ इसी ग़म में मर गया
खुशबीर सिंह 'शाद' का कलाम उर्दू के अदबी हलकों में दिलचस्पी से पढ़ा जा रहा है। एक ज़माना था जब मुशायरों में कुबूले-आम मेयार की सनद हुआ करता था लेकिन अगर किसी का क़लाम समाईन को भी मुतासिर करें और क़ारीन को भी मुतवज्जा करने में कामयाब हो तो उसका इस्हाक़ मुसल्लम हो जाता है।
- गोपीचंद नारंग