About the Book
यह विश्विख्यात कृति (गीता) जान-मनभावन बन भारतवर्ष को गौरवान्वित करती है। देश और विश्व की प्रायः समस्त भाषाओं मैं यह अनुदित है तथा इस पर बड़े-बड़े महापुरुषों द्वारा अनगिनत टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं।
"य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति...
न मे अन्यः प्रिय तरो भुवि।"
अर्थात जो पुरुष इस परम पवित्र गोपनीय ज्ञान को मेरे भक्तों में कहेगा, वः मुझे सर्वाधिक प्रिय है। प्रभु की इस आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए संस्कृत भाषा से अल्प परिचित अथवा अपरिचित जिज्ञासुओं की ज्ञानपिपासा को यतकिंचित शांत करने निमित्त एक सामान्य बोलचाल वाली हिंदी में श्रीमद्भगवतगीता के प्रथम अध्याय से अष्टादश अध्याय तक सभी सात सौ श्लोकों का भाव सात सौ दोहों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। संस्कृत श्लोक का पूर्ण भाव दोहे में रखने का प्रयत्न किया गया है।
अमृतवर्षी भगवान् श्री कृष्णचन्द्र के चरणारविन्दों की छत्रछाया में सभी भक्त कर्मयोग, भक्तियोग एवं ज्ञान की त्रिवेणी में स्नान कर त्रिविध तापों से मुक्ति पाएँ।
- डॉ विष्णु देव शर्मा
श्री कृष्ण सारथी हैं, तो अर्जुन के मार्ग की बहुतेरी कठिनाई यूँ ही मिट जाती हैं। अर्जुन अनिर्णय की स्थिति में होता है - क्या करे क्या न करे! श्रीकृष्ण सही विकल्प सुझाकर अर्जुन को दुविधा से उबरते हैं। आज चहुँ ओर अर्जुन ही अर्जुन हैं। असीम शक्ति के स्वामी मगर दुविधाग्रस्त। मार्ग अनेकों, लेकिन सही मार्ग की पहचान नहीं है।
जीवन का हमारा ये अनंत विस्तार कुरुक्षेत्र है जहाँ महाभारत होने को है। श्रीकृष्ण कहीं नहीं हैं! अर्जुन अपनी दुविधा किससे कहे? जब तक श्रीकृष्ण का आविर्भाव नहीं होगा, तब तक 'गीता' गर्भ में ही रहेगी। 'गीता' के अवतरण होने तक धर्म और अधर्म का निश्चय असंभव है। ऐसी परिस्तिथि में, हम सभी धर्मराज का अवतार हैं - नरो वा कुंजरो! अर्थात जो भी हम कहेंगे, वह सत्य होगा। जो भी करेंगे, धर्म संगत होगा। हमारे कहे को मानना सबका नैतिक दायित्व होगा, क्योंकि शेष सभी अर्जुन हैं।
ये हमारे समय की भीषण स्तिथि है जिसका आकलन करने का सामर्थ्य तक हम में नहीं है। अतएव जीवन के कुरुक्षेत्र में महाभारत को होना ही होगा ताकि धर्म व् अधर्म का निर्णय हो और हमारा जीवन धर्म के मार्ग का अनुसरण कर मोक्ष की और अग्रसर हो। ये अद्भुत ग्रंथ 'गीता' हमारे लिए कृष्ण स्वरुप ही है जो हमारे सारे संशय दूर करता है।